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जैन बौद्ध तत्वज्ञान !
मुक्तिकान्तिकी तस्य चित्ते यस्पाचला धृतिः । तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यवळा धृतिः ॥ ७१ ॥ भावार्थ- जिसके मन में निष्कम्प आत्मामें थिरता है उसको अवश्य निर्माणका लाभ होता है, जिसके चित्तमें ऐसा निश्चल धैर्य नहीं है उसको निर्वाण प्राप्त नहीं होमकता है ।
ज्ञानार्णवमें कहा है:--
निःशेकश निमुक्तममुत्तै परमाक्षरम् |
निष्यपचं व्यतीताक्षं पश्य त्वं स्वात्मनि स्थितं ॥ ३४ ॥
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भावार्थ- हे आत्मन् ! तू अपने ही आत्मामें स्थित, सर्व केशोंसे रहित, अमूर्तीक, परम अविनाशी, निर्विकल और अतींद्रिय अपने ही स्वरूपका अनुभव कर ।
रागादिपङ्कविश्लेषात्प्रसन्ने चित्तवारिणि ।
परिस्फुरति निःशेषं मुनेर्वस्तु कदम्बकम् ।। १७-२३ ॥
भावार्थ - रागादि कर्दम के अभावले जब चित्तरूपी जल शुद्ध
होजाता है तब मुनिके सर्व वस्तुओं का स्वरूप स्पष्ट भासता है ! तत्वज्ञान तरंगिणीमें कहा है
व्रतानि शास्त्राणि तपांसि निर्जने निवासमेतवं हि : संगमोचनं । मौनं क्षमातापनयोगधारणं चिचितयामा कलयन् शिवं श्रयेत् ॥ ११-१४॥ भावार्थ जो कोई शुद्ध चैतन्य स्वरूप के मननके साथ साथ व्रतोंको पालता है, शास्त्रोंको पढ़ता है। तर करता है, निर्जनस्थान में रहता है, बाहरी भीतरी परिग्रहका त्याग करता है, मौन धारता है, क्षमा पालता है व आतापन योग धारता है वही मोक्षको पाता है ।
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