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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२१३ विनका. उत्पन्न हिंसाके वितर्कका, तथा अन्य उत्पन्न होते अकुशल धर्मोका स्वागत करता है, छोड़ता नहीं ।
(४) भिक्षु व्रण (घात) का ढाकनेवाला नहीं होता हैभिक्षु अांखसे रूपको देखकर उसके निमित्त ( अनुकूल प्रतिकूल होने ) का ग्राण करनेवाला होता है । मनुव्यंजन ( पहचान ) का ऋण करनेवाला होता है । जिस विषयमें इस चक्षु इन्द्रियको संपत न रखनेपर लोम और दौर्मनस्य मादि बुगइयां भकुशल धर्म मा चिपटते हैं उसमें संयम करने के लिये तत्पर नहीं होता। चाइन्द्रियही रखा नहीं करता, चाहन्द्रियके संवरमें लम नहीं होता। इसी तरह श्रोत्रसे शब्द सुनकर, प्राणसे गंव संवकर, जिहासे रस चलकर, कायासे स्पृश्यको स्पर्शकर, मनसे धर्मको जानकर निमित्तका ग्रहण करनेवाला होता है । इनके संयममें लम नहीं होता।
(५) भिक्षु धुआं नहीं करता-भिक्षु सुने अनुसार, जाने मनुसार, धर्मको दूसरों के लिये विस्तारसे उपदेश करनेवाला नहीं होता।
(६) भिक्षु तीर्थको नहीं जानता-जो वह भिक्षु बहुश्रुत, बागम प्राप्त, धर्मधर, विनयघर, मात्रिका घर है उन भिक्षुओं के पास समय समयपर जाकर नहीं पूछता, नहीं प्रश्न करता कि यह कैसे है, इसका क्या अर्थ है, इसलिये वह भिक्षु पवित्राको विव्रत नहीं करता, खोलकर नहीं बतलाता, मसष्टको सष्ट नहीं करता, अनेक प्रकार के शंका-स्थानवाले धर्मों में उठी शंकाका निवारण नहीं करता।
(७) भिक्षु पानको नहीं जानता-भिक्षु तथागतके बालावे धर्म विनयके उपदेश दिये जाते समय उसके अर्थवेद (अर्थ ज्ञान) को नहीं पाता।
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