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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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महंकार, मद, राग, द्वेष, मोह, व लौकिक व्यवहारसे विरक्त होकर ध्यानमें लीन होकर अपने ही आत्माको ध्याता है ।
शिवकोटि भगवती आराधनायें कहते हैं
वह जह णिवेदुवसम, वेग्गदयादमा पवति । तह तह बन्भासयरं, णित्रयाणं होई पुरिसस्स ॥ १८६२ ॥ बयरं ग्दणेसु जहा गोसील चंदण व गंधेसु ।
बेरुलयं व मणीण, तह झाणं होइ स्ववयस्स ॥ १८९४ ॥ भावार्थ - जैसे जैसे साधुर्वे धर्मानुराग, शांति, वैराग्य, दया, व संयम बढ़ते जाते हैं वैसे निर्वाण अति निकट आता जाता है । जैसे रत्नोंमें हीरा प्रधान है, सुगन्ध द्रव्योंमें गोसीर चंदन प्रधान है, मणियों में बेडूर्यमणि प्रवान है तैसे साधुके सर्व व्रत व तपोंमें ध्यान समाधि प्रधान है ।
आत्मानुशासन में कहा है
यमनियमनितान्त: शान्तमाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्व सानुकम्पी |
विहितहितमिताशी क्लशजाळे समूळे
दहति निहतनिद्रो निश्चि ॥ध्यात्मसार: ॥ २२५ ॥
भावार्थ- जो साधु यम नियममें तत्पर हैं, जिनका अंतर बहिरंग शांत है, जो समाधि भावको प्राप्त हुए हैं, जो सर्व प्राणीमात्र पर दयावान हैं, शास्त्रोक्त हितकारी मात्रासे आहारके करनेवाले हैं, निद्राको जीतनेवाले हैं, आत्माके स्वभावका सार जिन्होंने पाया है, वे ही ध्यानके बलसे सर्व दुःखों के जाल संसारकोजला देते हैं ।
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