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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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भावार्थ - जो कोई मानव सदा राग द्वेषको नाश करके संसारको मिटानेवाले चारित्रको पालते हैं वे ही परमपद निर्वाणको पाते हैं।
ज्ञानभावनया शक्ता निमृतेनान्तरात्मनः ।
अमत्तं गुणं प्राप्य लभन्ते हितामात्मनः ॥ २९८ ॥ भावार्थ- सम्यग्दृष्टी महात्मा साधु आत्मज्ञानकी भावना से हुए व दृढ़ता रखते हुए प्रमाद रहित ध्यानकी श्रेणियों में चढ़कर अपने आत्माका हित पाते हैं ।
सचि
संसारवासभरूणां त्यक्तान्तर्बाह्यसंगिनाम् ।
विषयेभ्यो निवृत्तानां श्लाव्यं तेषां हि जीवितम् ॥ २१९ ॥
भावार्थ - जो महात्मा संसार के भ्रमण से भयभीत हैं, तथा रागादि अंतरङ्ग परिग्रह व धनधान्यादि बाहरी परिग्रहके त्यागी हैं तथा पांचों इन्द्रियों के विषयोंसे विरक्त हैं उन साधुओं का ही जीवन प्रशंसनीय है !
श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार कहते हैंशिवममरमरुञमक्ष वसन्याबाधं विशोकमपशङ्कम् । काष्टातसुख विद्याविभवं विमलं भजन दर्शन शरणः ॥४०॥
भावार्थ- सम्यग्दृष्टी जीव ऐसे निर्वाणका लाभका ही ध्येय रख धर्मका सेवन करते हैं जो निर्वाण नानन्दरूप है, जरा रहित है, रोग रहित है, बावा रहित है, शोक रहित है, भय रहित है, शंका रहित है, जहां परम सुख व परम ज्ञानकी सम्पदा है तथा जो सर्व मक रहित निर्मल शुद्ध है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसारमें कहते हैं
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