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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
प्रवचनसार में कहा है:--
पुग उदिण्णता दुहिदा तहाहि विलय सोक्खाणि । इच्छंति अणुवंतिय बामरणं दुक्खसंतत्ता ॥ ७९-१ ॥ भावार्थ- संसारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुःखी होते हुए इन्द्रिय भोगोंके सुखोंको बारबार चाहते हैं और भोगते हैं । मरण पर्यन्त ऐसा करते हैं तथापि संतापित रहते हैं।
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शिवकोट आचार्य भगवती आराधनामें कहते हैं । जीवस्स णत्थि तित्ती, चिरपि मोएहि मुंत्रमाणेहिं । तित्तीये विणा चित्तं सब्बूरं उब्वुर्द होइ ॥ १२६४ ॥
भावार्थ - चिरकाल तक भोगोंको भोगते हुए भी इस जीवको तृप्ति नहीं होती है। तृप्ति विना चिच घबड़ाया हुआ उड़ा लड़ा फिरता है । आत्मानुशासनमें कहा है
दृष्ट्वा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं स्वल्पोप्यसौ तब महज्जनयत्यनर्थम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य
दोषो निषिद्धाचरणं न तथेतरस्य ॥ १९९ ॥
भावार्थ- हे मूढ़ ! तू ! तू लोगोंकी देखादेखी क्यों विषयभोगों की इच्छा करता है। ये विषयभोग थोड़े से भी सेवन किये जावें तौमी महान अनर्थको पैदा करते हैं । रोगी मनुष्य थोड़ा भी घी मादिका सेवन करे तो उसको वे दोष उत्पन्न करते हैं, वैसा दूपरेको नहीं उत्पन्न करते हैं । इसलिये विवेकी पुरुषोंको विषयाभिलाष करना उचित नहीं । श्री अमितगति तत्वभावनाम कहते हैं-
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