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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१९९ भावार्थ -इन्द्रिय जन्यसुख सुख नहीं है किंतु जो तृष्णारूपी भाग पैदा होती है उसकी वेदनाका क्षणिक इलाज है। सुख तो मात्मामें स्थित होनेसे होता है, जन परिणाम विशुद्ध हों व निराकुलता हो। __मैंने इन्द्रियजन्य सुखको बार बार भोगा है, वह कोई अपूर्व नहीं है। वह तो आकुलताका कारण है । मैंने निर्विकल्प आत्मीक सुख कभी नहीं पाया, उसीके लिये मेरी भावना है।
(२१) मज्झिमनिकाय-महासारोपम सूत्र ।
गौतमबुद्ध कहते हैं-(१) भिक्षुओ ! कोई कुल पुत्र श्रद्धापूर्वक घरसे वेधर हो प्रव्रजित ( सन्यासी ) होता है । “ मैं जन्म, जरा, मन्ण, शोकादि दुःखों में पड़ा है। दुःखसे लिप्त मेरे लिये क्या कोई दुःस्वस्कंधके अन्त करनेका उराय है ? " वह इस प्रकार प्रव्रजित हो लाभ सरकार व प्रशंसाका भागी होता है । इसीसे संतुष्ट हो अपनेको परिपूर्ण संकल्प समझता है कि मैं प्रशंसित हूं, दुसरे भिक्षु अप्रसिद्ध शक्तिहीन हैं। वह इस लाभ सत्कार प्रशंसासे मतवाला होता है, प्रमादी बनता है, प्रमत्त हो दुःख में पड़ता है।
.जैसे सार चाहनेवाला पुरुष सार (हीर या असली स गूदा ) की खोजमे घूमता हुआ एक सारदाले महान वृक्ष के रहते हुए उसके तारको छोड़, फल्गु (सार और छिलकेके बीचका काठ) को छोड़, पपड़ीको छोड़, शाखा पत्तेको काटकर और उसे ही सार समझ लेकर चला जावे, उसको भांखवाला पुरुष देखकर ऐसा
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