________________
१९४]
दूसरा माग। किन्तु उनकी ये दृष्टियां हुई ( इन दृष्टियोंके या नयो पिचारमें फंस गए) (१) लोक शाश्वत है, (२) (अथवा) यह लोक नशाश्वत है, (३) लोक सान्त है, (१) (अथवा) लोक अनंत है, (५) सोई जीव है, सोई शरीर है, (६) (अथवा) जीव अन्य है, शरीर अन्य है, (७) तथागत (बुद्ध, मुक्त) मरनेके बाद होते हैं, (८) (अथवा) तथागत मरनेके बाद नहीं होते, (९) तथागत मरने के बाद होते भी हैं, नहीं भी होते, (१०) तथागत मरने के बाद न होते हैं न नहीं होते हैं । इस प्रकार इन (विकल्प जालोंमें फंसकर) तीसरे श्रमण-ब्राह्मण भी मारके फंदेसे नहीं छूटे। - चौथे प्रकारके श्रमण-ब्रह्मणोंने पहले तीन प्रकारके श्रमणब्राह्मणोंकी दशाको विचार यह सोचा कि क्यों न हम वहां माश्रय ग्रहण करें जहां मारकी और मार परिषद् की गति नहीं है। वहां हम अमूछित हो भोजन करेंगे. मदको प्राप्त न होंगे, स्वेच्छाचारी न होंगे, ऐसा सोच उन्होंने ऐसा ही किया। वे चौथे श्रमण ब्राह्मण मारके फंदेसे छूटे रहे। कैसे (आश्रय करनेसे) मार और मार परिषदकी गति नहीं होती।
(१) भिक्षु कामों (इच्छाओं) से रहित हो, बुरी बातोंसे रहित हो, सवितर्क सविचार विवेकज प्रीतिसुख रूा प्रथम ध्यानको प्राप्त हो, विहरता है। इस क्षुिने माको अंबा कर दिया। मारकी चक्षुसे अगम्य बनकर वह भिक्षु पपी मारसे अदर्शन होगया ।
(२) फि. वह भिक्षु अवितर्क अविवार समाधिजन्य द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। इसने भी मारको अंबा कर दिया।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com