________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
| १९३ अमूर्छित होकर निवायको भोजन करें। उन्होंने ऐसा ही किया । स्वेच्छाचारी नहीं हुए । तब नैशयिकको यह विचार हुआ कि वे मृग चतुर हैं । हमारे छोड़े निवायको खाते हैं परन्तु उसने उनके आश्रयको नहीं देख पाया जहांकि वे पकड़े जाते । तब नैवायिकको यह विचार हुआ कि इनके पीछे पड़ेंगे तब सारे मृग इस बोए निवासको छोड़ देंगे, वर्षो न हम इन चौथे मृगकी उपेक्षा करें. ऐसा मोच उपने उपेक्षित किया। इस प्रकार चौथे मृग नैवायिक के फंदसे छूटे - पकडे नहीं गए। भिक्षुभो ! अर्थ को समझने के लिये यह उपमा कहीं है। निवाय पांच कामगुणों ( पांच इन्द्रिय भोगों) का नाम है। नैवाधिक पापी मारा नाम है । गृण सह भ्रमण-ब्रह्मणोंका नाम है। पहले प्रकार के मृगों के समान भ्रमण ब्राह्मण इन्द्रिय विषयोंको मूर्ति हो भोग-नदी हुए. स्वेच्छाचारी हुए, मारके फंदे गए । दूसरे प्रकार के पहले श्रमण-ब्राह्मणों की दशा को विवार कर, विषयभोग सावित हो, स्थानका अवगान कर बिरने लगे। वहां शाहारी हुए, जमीनपर पडे फलोंको स्वानेवाले हुए। ग्रीष्मक अंत समघाम पानी के क्षय होने पर भोजन
पाचवीर्यष्टतिष्टि हो गई। लौटकर वियोगको मूर्च्छित हो! करने को। मा फन्दे गए।
तीसरे प्रकारणाने दोनों के श्रममन्त्र हामी दशः विवार यह सोचा बटन हम मूति हो विषयोग करें? ऐसा सोच कमूर्छित हो दियो या स्वेच्छाचारी नहीं हुए
१३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com