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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१०७. भी साताकी वेदना झलकती है उसको यहां वेदनाका आस्वाद कहा है । यह वेदना भी भनित्य है। भारमानन्दसे विलक्षण है। अतएक दुःखरूप है। विकार स्वभावरूप है। इसमें अतीन्द्रिय सुख नहीं है। इस प्रकार सर्व तरहकी वेदनाका राग त्यागना आवश्यक है। जैा सिद्धांतमें जहां सूक्ष्म वर्णन किया है वहां चेतना या वेदनाके तीन भेद किये हैं। (१) कर्मफल चेतना-कर्मोका फल सुख अथवा दुःख भोगते हुए यह भाव होना कि मैं सुखी हूं या दुःखी हूं। (२) कर्म चेतना-राग या द्वेषपूर्वक कोई शुभ या अशुभ काम करते हुए यह वेदना कि मैं अमुक काम कर रहा हूं (३) ज्ञानचेतना-ज्ञान स्वरूपकी ही वेदना या ज्ञानका आनंद लेना । इनमेंसे पहली दोको अज्ञान चेतना कहकर त्यागने योग्य कहा है। ज्ञानचेतना शुद्ध है व ग्रहणयोग्य है।
श्री पंचास्तिकायमें कुंदकंदाचार्य कहते हैंकम्माणं फलमेक्को एक्को कजं तु णाण मधएको ।
चेदयदि जीवरासी चेदनाभावेण तिविहेण ॥ ३८ ॥
भावार्थ-कोई जीवराशिको कर्मोके सुख दुःख फलको वेदे है, कोई जीवराशि कुछ उद्यम लिये मुख दुखरूप कोंके भोगनेके निमित इष्ट अनिष्ट विकल्परूप कार्यको विशेषताके साथ वेदे है
और एक जीवराशि शुद्ध ज्ञान हीको विशेषतासे वेदे हैं। इस तरह चेतना तीन प्रकार है।
ये वेदनायें मुख्यतासे कौन२ वेदते हैं ?--
सम्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्ज जुदं । पाणितमदिकंता णाणं विदंति ते जीवा ॥ ३९ ॥
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