________________
जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान |
रागद्वेषनिवृत्तेहिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥ ४८ ॥ भावार्थ - राग द्वेष छूटने से हिंसादि पाप छूट जाते हैं । जैसे जिसको धन प्राप्तिकी इच्छा नहीं है वह कौन पुरुष है जो राजाकी सेवा करेगा |
११२
हिंसानृतचभ्यो मैथुनसेवा परिग्रहाभ्यां च ।
पापप्रणालिकाम्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ १९ ॥ भावार्थ- पाप कर्मको लानेवाली मोरी पांच हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवा तथा परिग्रह । इससे विरक्त होना ही सम्यग्ज्ञानीका चारित्र है ।
सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससङ्गानाम् ॥ ९० ॥
भावार्थ:- चारित्र दो तरहका है - पूर्ण (मल) अपूर्ण (विकल) जो सर्व परिग्रह के त्यागी गृहरहित साधु हैं वे पूर्ण चारित्र पाळते हैं। जो गृहस्थ परिग्रह सहित हैं वे अपूर्ण चारित्र पाळते हैं ।
कषायैरिन्द्रियै दुष्टे कुळी क्रियते मना ।
ततः कर्तुं न शक्नोति भावना गृहमेधिनी ॥
भावार्थ- गृहस्थीका मन क्रोधादि कषाय तथा दुष्ट पांचों इन्द्रियोंकी इच्छाएं इनमे व्याकुल रहता है। इससे गृहस्थी आत्माकी भावना ( भले प्रकार पूर्णरूप से ) नहीं वर सक्ता है ।
श्री कुंदकुंदाचार्य प्रवचन लार में कहते हैं
जेसि विसयेसु रदी तेसिं दुःखं वियाण रुम्मावं | जदितं ण हि सम्भावं वावारोणत्थि विसयत्थं ॥ ६४-१ ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com