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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । १७५ शुद्ध आत्मतत्वका ध्यान कर, जिससे भपूर्व निर्वाण लक्ष्मीका लाम हो।
नाहं कस्यचिदस्मि कश्चन न मे भावः परो विद्यते । मुक्त्वात्मानमपास्तकर्मसमिति ज्ञानेक्षणालंकृतिम् ॥ ... . यस्यैषा मतिरस्ति चेतसि सदा ज्ञातात्मतत्वस्थितेः। . बंधस्तस्य न यंत्रितं त्रिभुवनं सांसारिकैबन्धनैः ॥ ११ ॥
भावार्थ- मेरे सिवाय मैं किसीका नहीं हूं न कोई परमाव मेरा है । मैं तो सर्व कर्मजालसे रहित, ज्ञानदर्शनसे विभूषित एक मात्मा हूं, इसको छोडकर कुछ मेरा नहीं है। जिसके मन में यह बुद्धि रहती है उस तत्वज्ञानी महात्माके तीन लोकमें कहीं भी संसारके बंधनोंसे बन्ध नहीं होता है।
मोहांधानां स्फुरति हृदये बाह्यमात्मीयबुध्या । निर्मोहानां व्यपगतमल: शश्वदात्मैव नित्यः ॥ यत्तभेदं यदि विविदिषा ते स्नकीय स्वकीयमोह चित्त ! क्षपयसि तदा किं न दुष्ट क्षणेन ॥ ८८ ॥
भावार्थ-मोहसे मन्ध जीवोंके भीतर अपनेसे बाहरी वस्तुमें मात्मबुद्धि रहती है, मोह रहितों : भीतर केवल निर्वाण स्वरूप शुद्ध नित्य भात्मा ही अकेला बसता है। जब तु इस भेदको जानता है तब तू अपना दुष्ट मोह उन सबसे क्षणमात्रमें क्यों नहीं छोड़ देता है।
तत्वज्ञानतरंगिणीमें ज्ञानभूपण भट्टारक कहते हैंकीर्ति वा पररंजन स्व विषयं के चिन्निनं जीवितं । संतानं च परिप्रहं भयमपि ज्ञान तथा दर्शनं ॥ अन्यस्याखिलवस्तुनो रूगयुर्ति र द्वयुमुद्दिश्य च । कुयुः कर्म विमोहिनो हि सुधियश्चिद्रूपलब्ध्यै परं ॥९-९॥
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