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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१८१ इस तत्वज्ञानसे साफ प्रगट है कि गौतम बुद्ध निर्वाण स्वरूप मात्माको नागकी उपमा देकर पूजनेकी आज्ञा देते हैं, उसे नहीं फेंकते, उसको स्थिर रखते हैं और जो कुछ भी उसकी प्रतिष्ठाका विरोधी था उस सबको भेद विज्ञान रूपी प्रज्ञासे अलग कर देते हैं। यदि शुद्धात्माका अनुभव या ज्ञान गौतम बुद्धको न होता व निर्माणको अभावरूर मानते होते तो ऐसा कथन नहीं करते कि सर्व सांसारिक वासनाओंको त्याग कर दो।
सर्व इन्द्रिय व मन सम्बन्धी क्रमवर्ती ज्ञानको अपना स्वरूप न मानो। सर्व चाहनाओंको हटावो । सर्व क्रोधादिको व गगद्वेष मोहको जीत लो । बस, अपना शुद्ध स्वरूर रह जायगा । यही शिक्षा जैन सिद्धांतकी है, निर्वाण स्वरूप मात्मा ही सिद्ध भगवान् है। उसके पर्व द्रव्यकर्म, ज्ञानावरणादि कर्म बंध संस्कार, भावकर्म रागद्वेषादि औपाधिक भाव नोकर्म-शरीरादि बाहरी मर्व पदार्थ नहीं है, न उमके क्रमवर्ती क्षयोपशम अशुद्ध ज्ञान है, न कोई इन्द्रिय है, न मन है। वही ध्यानके योग्य, पूजनके योग्य, नमस्कारके योग्य है। उसके ध्यानमे उसी स्वरूप द्वोजाना है। यही तत्त्वज्ञान इस सूत्रका भाव है व यही भैन सिद्धांतका मर्म है। गौतमबुद्धरूपी ब्राह्मण नवीन निर्वाणेच्छु शिष्यको ऐसी शिक्षा देते हैं। जबतक शरीरका संयोग है तबतक ये सर ऊपर लिखित उपाघियां रहती हैं, जब वह निर्वाण स्वरूप प्रभु शायसे रहित होकर फिर कायमें नहीं फंसता, वहीं निर्वाण होजाता है, प्रज्ञा निर्वाण और निर्वाण विरोधी सर्वके भिन्नर उत्तम ज्ञानको कहते हैं। जैन सिदा
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