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भावार्थ -इस संपारमें मोही पुरुष कीर्ति के लिये, कोई पररंगनके लिये, कोई इन्द्रिय विषय के लिये, कोई जीवनकी रक्षाके लिये, कोई संतान, कोई परिग्रह प्राप्तिके लिये, कोई भय मिटाने के लिये, कोई ज्ञानदर्शन बढ़ाने के लिये, कोई राग मिटाने के लिये धर्मकर्म करते हैं, परन्तु जो बुद्धिमान हैं वे शुद्ध चिपकी प्राप्तिके लिये ही यत्न करते हैं।
समयसार कलशमें श्री अमृतचंद्राचार्य कहते हैंरागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामितमस्तकमविकला मिन्नास्तदात्योदयात् । दूगरूढचरित्रवैभवपलाञ्चञ्चच्चिदर्चिष्मयों विन्दन्ति स्वरसाभषिक्तभुवन बानस्य संचेतना ॥ ३०-१०॥
भावार्थ-ज्ञानी जीव रागद्वेष विभावोंको छोड़कर सदा अपने स्वभावको स्पर्श करते हुए, पूर्व व आगामी व वर्तमानके तीन काल सम्बन्धी सर्व कर्मोसे अपनेको रहित जानते हुए स्वात्म रमणरूप चारित्रमें भारुढ़ होते हुए भात्मीक मानन्द-रससे पूर्ण प्रकाशमयी ज्ञानकी चेतनाका स्वाद लेते हैं।
कृतकारितानुमनने स्त्रकार विषयं मनोवचनकायैः । परिहत्य कर्म सर्व प म ने यमबलम्बे ॥ ३२-१० ॥
भावार्थ- भून भविष्य वर्तमान सम्बन्धी मन वचन काय द्वारा कृत, कारित, अनुमोदनासे नौ प्रकार के सर्व कोको त्यागकर मैं परम निष्कर्म भावको धारण करता हूं।
ये ज्ञानमात्रनिजभ वमयीमकम्पां । भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ॥
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