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अन बौद्ध तत्वज्ञान। [१७. होने वाले त्रिकाल सम्बन्धी वेदना, संज्ञा, संस्कार व विज्ञानको अपना नहीं मानता है । जो मैं परसे भिन्न हूं ऐसा अनुभव करता है वही ज्ञानी है, वही संसार रहित मुक्त होजाता है ।
(६) फिर इस सूत्रमें बताया है कि जो बुद्धको नास्तिकवादका या सर्वथा सत्यके नाशका उपदेशदाता मानते हैं सो मिथ्या है। बुद्ध कहते हैं कि मैं ऐसा नहीं कहता। मैं तो संसारक दुःखों के नाशका उपदेश देता हूं।
(७) फिर यह बताया है कि जैसा मैं निन्दा व प्रशंसा सममाव रखता हूं व शोकित व नंदित नहीं होता हूं वैसा भिक्षु. ओंको भी निंदा व प्रशंसामे समभाव रखना चाहिये ।
(८) फिर यह बताया है कि जो तुम्हारा नहीं है उसे छोड़ो। रूपादि विज्ञान तक तुम्हारा नहीं है इसे छोडो। यही स्वाख्यात (भलेप्रकार कहा हुभा) धर्म है।
(९) फिर यह बताया है कि जो स्वारूपात धर्मपर चलते हैं वे नीचे प्रकार अवस्थाओं को यथासंभव पाते हैं
(१) क्षीणास्रब हो मुक्त हो जाते हैं, (२) देव गतिमें जाकर अनागामी होजाते हैं वहींसे मुक्ति पालेते हैं, (३) देवगतिसे एकवार ही यहां आकर मुक्त होंगे, उनको सकृदागागी कहते हैं, (४) स्रोतापन होजाते हैं, संसार सम्बन्धी रागद्वव मोह नाश करके संबोधिपरायण ज्ञानी होजाते हैं, ऐसे भी श्रद्धा मात्रसे स्वर्गगामी हैं।
__ जैन सिद्धांतमें भी बताया है जो मात्र अविरत सम्यग्दृष्टी हैं, चारित्र रहित सत्य स्वाख्यात धर्मके श्रद्धावान हैं सच्चे प्रेमी हैं,
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