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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१७१ मात्माके होते हैं। सात व सातसे आगे सर्व गुणस्थान ध्यान व समाधिरूप है। जैसे निर्वाण का मार्ग स्वानुभवरूप निर्विकल्प है वैसे निर्वाण भी स्वानुभवरूप निर्विकल्प है । कार्य होनेपर नीचेका स्वानुभव स्वयं छूट जाता है ।
फिर इस सत्र में बताया है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञानको व जो कुछ देखा सुन!, अनुभवा व मनसे विचार किया है उसे छोड़दो। उसमें मेरापना न करो ।यह सब न मेरा है न यह मैं हूं, न मेरा मात्मा है ऐसा अनुभव करो। यह वास्तवमें भेद विज्ञानका प्रकार है।.
जैन सिद्धांतके अनुसार मतिज्ञान व श्रुतज्ञान पांच इन्द्रिय व मनसे होनेवाला पराधीन ज्ञान है. वह आप निर्वाणस्वरूप नहीं है । निर्वाण निर्विकल्प है, स्वानुभवगम्य है, वही मैं हूं या भात्मा है इस भावसे विरुद्ध सर्व ही इन्द्रिय व मनद्वारा होनेवाले विकल्प त्यागने योग्य हैं। यही यहां भाव है। इन्द्रियों के द्वारा रूपका ग्रहण करता है। पांचों इन्द्रियों के सर्व विषय रूप हैं, फिर उनके द्वारा सुख दुःख वेदना होती है, फिर उन्हींकी संज्ञारूप वृद्धि रहती है, उसीका वारवार चित्तपर असर पड़ना संस्कार है, फिर वही एक धारणारूप ज्ञान होजाता है, इसीको विज्ञान कहते हैं। वास्तवमें ये पांचों है। त्यागनेयोग्य हैं। इसी तरह मनवेद्वार होनेवाला सर्व विकल्प त्यागनेयोग्य हैं। जैन सिद्धान्तमें बताया है कि यह माप आत्मा अतीन्द्रिय है, मन व इन्द्रियोंसे अगोचर है। आपसे आप ही अनुभवगम्य है । श्रुतज्ञानका फल जो भावरूप स्वसंवेदनरूप मात्मज्ञान
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