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जैन बौद तत्वान। [१९ जो धर्मके मसली तत्वको उल्टा समझ लेगा उसका भहित होगा। परन्तु जो ठीक ठीक भाव समझेगा उसका परम हित होगा । यही बात जैन सिद्धांतमें कहीं है कि ख्याति लाम पूजादिकी चाहके लिये धर्मको न पाले, केवल निर्वाणके लिये ठीक२ समझकर पाले, विपरीत समझेगा तो बाहरी ऊंचासे ऊंचा चारित्र पालनेपर भी मुक्ति नहीं होगी। जैसे यहां प्रज्ञासे समझनेका उपदेश है वैसे ही जैन सिद्धांतमें कहा है कि प्रज्ञासे या भेद विज्ञानसे पदार्थको समझना चाहिये कि मैं निर्वाण स्वरूप आत्मा भिन्न ई व सर्व रागादि विकप भिन्न हैं।
(२) दुसरी बात इस सूत्र में बताई है कि एक तरफ निर्वाण परम सुखमई है, दूसरी तरफ महा भयंकर संसार है । बीचमें भकसमुद्र है। न कोई दूसरी नाव है न पुल है । जो माप ही मन. समुद्र तरनेकी नौका बनाता है व माप ही इसके सहारे चलता है बह निर्वाण पर पहुंच जाता है। जैसे किनारे पर पहुंचने पर चतुर पुरुष जिस नावके द्वारा चल कर माया या उसको फिर पकड़ कर धरता नहीं-उसे छोड़ देता है, उसी तरह ज्ञानी निर्वाण पहुंच कर निर्माण मार्गको छोड़ देता है। साधन उसी समय तक आवश्यक है जबतक साध्य सिद्ध न हो, फिर साधनकी कोई जरूरत नहीं। सुत्रमें कहा है कि धर्म भी छोडने लायक है सब अधर्मकी क्या बात । यही बात जैन सिद्धांतमें बताई है कि मोक्षमार्ग निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मसे दो प्रकारका है । इनमें निश्चय मर्म ही यथार्थ मार्ग है, व्यवहार धर्म केवल निमित्त कारण है। निश्चय धर्म
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