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.दूसरा भान। ..
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय शुद्धात्मानुभव है या सम्यक्समाधि है, व्यवहार धर्म पूर्ण रूपसे साधुका चारित्र है, अपूर्णरूपसे गृहस्थका चारित्र है । गृही भी आत्मानुभवके लिये पूजापाठ जप तपादि करता है। जब स्वात्मानुभव निश्चयधर्मपर पहुंचता है तब व्यवहार स्वयं छूट जाता है । जब स्वानुभव नहीं होसक्ता फिर व्यवहारका माल म्बन लेता है । स्वानुभव उपादान कारण है। जब ऊंचा स्वानुभव होता है तब उससे नीचा छूट जाता है । साधु भी व्यवहार चारित्रद्वारा भात्मानुभव करते हैं, मात्मानुभवके समय व्यवहारचारित्र स्वयं छूट जाता है । जब मात्मानुभवसे हटते हैं फिर व्यवहारचारित्रका सहारा लेते हैं । इस अभ्याससे जब ऊंचा आत्मानुभव होता है तब नीचा छूट जाता है। इसी तरह जब निर्वाण रूप माप होजाता है. अनंतकाल के लिये परम शांत व स्वानुभवरूप होनाता है तब उसका साधनरूप स्वानुभव छूट जाता है ।
जैन सिद्धांतमें उन्नति करनेकी चौदह श्रेणियां बताई हैं, इनको पार करके मोक्ष लाभ होता है। मोक्ष हुमा, श्रेणियां दूर रह जाती हैं।
वे गुणस्थानके नामसे कहे जाते हैं-उनके नाम हैं (१; मिथ्यादर्शन, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) भविरति सम्यग्दर्शन. (५) देशविरत, (६) प्रमत्त विरत, (७) अप्रमत्त विरत, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मलोम, (११) उपशांत मोह, (१२) क्षीण मोह, (१३) सयोगकेवली जिन, (१४) अयोगकेवली जिन । इनमें से पहले पांच गृहस्थ श्रावकोंके होते हैं. छठेसे बारहवें तक साधुओंके व तेरह तथा चौदहवें गुणस्थान मर्हन्त सशरीर पर.
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