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दास माग। लताको प्राप्त होगा। ऐसे ही भिक्षुषो! तुम भी बुराईको छोड़ो, कुशल धोये लगो, इस प्रकार धर्म विनयमें उन्नति करोगे।
भिक्षुषों ! भूतकाल में इसी श्रावस्ती नगरी वैदेहिका नामकी गृहपत्नी थीं। उसकी कीर्ति फैली हुई थी कि बैदेहिका मुरत है, निष्कलह है और उपशांत है । वैदेहिकाके पास काली नामकी दक्ष, भाकस्परहित, मच्छे प्रकार काम करनेवाली दासी थी। एक दफे काली दासीके मनमें हुआ कि मेरी स्वामिनीकी यह मंगल कीर्ति फैली हुई है कि यह उपशांत है। क्या मेरी आर्या भीतरमें क्रोधके विषमान रहते उसे प्रगट नहीं करती या भविद्यमान रहती ? क्यों न मैं मार्याकी परीक्षा करूं?
एक दफे काली दासी दिन चढे उठी तब भार्याने कुपित हो, मसंतुष्ट हो भौहें टेढी करली और कहा-क्योंरे दिन चढ़े उठती है। तब काली दासीको यह हुमा कि मेरी भाकि भीतर क्रोध विद्यमान है। क्यों न और भी परीक्षा करूं। काली और दिन चढ़ाकर उठी तब वैदेहिने कुपित हो कटु वचन कहा, तब कालीको यह हुआ कि मेरी मा के भीतर क्रोष है। क्यों न मैं और भी परीक्षा करूं। तब वह तीसरी दफे और भी दिन चढ़े उठी, तब वैदेहिकाने कुपित हो किवाड़की बिलाई उसके मारदी, शिर फूट गया, तब काली दासीने शिरके लोहू बहाते पड़ोसियोंसे कहाकि देखो, इस उपशांताके कामको । तब वैदेहिकाकी अपकीर्ति फैली कि यह अन् उपशांत है।
इसी प्रकार मिक्षुओं! एक मिक्षु तब ही तक मुरत, निष्फलह उपञ्चांत है, जबतक वह भप्रिय शब्दपाय नहीं पड़ता। जब उसपर
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