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श्री गुणमद्राचार्य जात्मानुशासनमें कहते हैं:मधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोर तपो।। ...
यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूनादिकम् ॥ .. छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः ।
कथं समुपलायसे सुरसमस्य पक्कं फलम् ॥ १८९ ॥
भावार्थ - सर्व शास्त्रोंको पढ़कर तथा दीर्घ कालतक घोर तप माधन कर यदि तू शास्त्रज्ञान और तपका फल इस लोकमें लाभ, पूजा, सत्कार आदि चाहता है तो तू विवेकशून्य होकर सुंदर तरूपी वृक्षके फूलको ही तोड़ डालता है। तब तू उस वृक्षके मोक्षरूपी पक्के फलको कैसे पा सकेगा ? तपका फल निर्वाण है, यही मावना करनी योग्य है। श्री शुषचंद्राचार्य ज्ञानार्णवमें कहते हैं--
अभयं यच्छ भूतेषु कुरु मैत्रीमनिन्दिताम् । पश्यात्मसदशं विश्व बीवलोकं चराचरम् ॥ ५२-८॥
भावार्थ-सर्व प्राणियोंको अभयदान दो, सर्वसे प्रशंसनीय मैत्रीभाव करो, जगतके सर्व स्थावर व अस प्राणियोंको अपने • समान देखो। श्री सारसमुच्चयमें कहते हैं
मैत्र्यड़ना सदोपास्या हृदयानन्दकारिणी ।
या विधत्ते कृतोपास्तिश्चित्तं विद्वेषर्जित ॥ २६ ॥
भावार्थ-मनको मानन्द देनेवाली मैत्रीरूपी स्त्रीका सदा सेवन करना चाहिये । उसकी उपासना करनेसे चित्तसे द्वेष निकल जाता है।
सर्वसत्वे दया मैत्री य: करोति सुमानसः । जयत्यसावरीन् सर्वान् ब ह्य भ्यन्त र संस्थितान् ॥ २६१ ।।
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