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जैन और बलशान। .[NEX मावार्थ-जो कोई मनुष्य सर्व प्राणीमात्रपर दया तथा मैत्रीभाव करता है वह बाहरी व भीतरी रहनेवाले सर्व शत्रुओंको जीत लेता है।
मनस्यालहादिनी सेच्या सर्वकाळसुखपदा । उपसेच्या त्वया मद् ! क्षमा नाम कुळाजना ॥ २६५ ॥
भावार्थ-मनको प्रसन्न रखनेवाली व सर्वकाल सुख देनेवाली ऐसी क्षमा नाम कुलवधूका हे मद्र! सदा ही तुझे सेवन करना चाहिये।
आत्मानुशासनमें कहा हैहृदयसरसि यावनिमले प्यत्यगधे ।। 'वसति खलु कषायप्राइचक्रं समन्तात् ॥ अयति गुणगणोऽयं तन तावद्विशङ्ख । समदमयमशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व ॥ २१३ ॥
भावार्थ-हे साधु ! तेरे मनरूपी गंभीर निर्मल सरोवरके भीतर जबतक सर्व तरफ क्रोधादि कषायरूपी मगरमच्छ बस रहे हैं तबतक गुणसमूह निशंक होकर तेरे भीतर माश्रय नहीं कर सके। इसलिये तु यत्न करके शांत भाव, इन्द्रियदमन व यम नियम मादिके द्वारा उनको जीत ।
वैराग्यमणिमालामें श्रीचंद्र कहते हैंभ्रातर्मे वचनं कुरु सारं चेत्त्वं वांछसि संसृतेपारं । मोहं त्यक्त्वा काम क्रोधं यज भज त्वं संयमवरबोधं ॥ ६ ॥
भावार्थ-हे भाई ! यदि तु संसार-समुदके पार जाना चाहता है तौ मेरा यह सार वचन मान कि तु मोहको त्याग, कामभाव व क्रोधको छोड़ और तू संयम सहिन :त्तम ज्ञानका मजन कर ।
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