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जैन बौद्ध तत्वान। . [१६१ परन्तु जो कोई कुलपुत्र धर्मो देशको धारण करते हैं, उन धोको धारणकर उनके अर्थको प्रज्ञासे पाखते हैं, प्रज्ञासे परखकर धर्मो के अर्थको समझते हैं वे उपारंभ लाम व वादमें प्रमुख बननेके लिये धोको धारण नहीं करते हैं, वे उनके अर्थको अनुभव करते हैं । उनके लिये यह सुग्रहीत धर्म चिरकाल तक हित और मुखके लिये होते हैं। जैसे भिक्षुभो ! कोई अलगद्द गवेषी पुरुष एक महान अलगद्दको देखे, उसको सांप पकड़ने के अनपद दंडसे अच्छी तरह पकड़े। गर्दनसे ठीक तौरपर पकड़े, फिर चाहे वह भलगढ़ उस पुरुषके हाथ, पांव, या किसी और अंगको अपने देहसे परिवेष्ठित करे, किंतु वह उसके कारण मरणको व मरण समान दुःखको नहीं प्राप्त होगा।
मैं बेड़ीकी भांति निस्तरण (पार जाने) के लिये तुम्हें धर्मको उपदेशता हूं, पकड़ रखनेके लिये नहीं। उसे सुनो, अच्छी तरह मनमें करो, कहता हूं
जैसे भिक्षुमओ ! कोई पुरुष कुम र्ग जाते एक ऐमे महान् समुद्रको प्राप्त हो जिसका इधरका तीर भयमे पूर्ण हो और उघरका तीर क्षेमयुक्त और भयरहित हो। वहां न पार लेजाने वाली नाव हो न इधरसे उधर जानेके लिये पुल हो। तब उसके मनमें हो-क्यों न मैं तृण काष्ठ-पत्र जम कर बेड़ा बधूं और उस बेड़े के सहारे स्वस्तिपूर्वक पार उतर जाऊं । तब वह बेड़ा बांधकर उस बेड़ेके सहारे पार उतर जाए। उत्तीर्ण हो नेपा उमके मनमें ऐसा हो - यह बेड़ा मेरा बड़ा उपकारी हुआ है क्यों न मैं इसे शिरपर या
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