________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान । मप्रिय शब्दपथ पड़ता है तब भी तो उसे सुरत, निष्कलह और उपशांत रहना चाहिये। मैं उस भिक्षुको सुवच नहीं कहता जो मिक्षा मादिके कारण सुवच होता है, मृदुभाषी होता है। ऐसा भिक्षु मिक्षादिके न मिलनेपर सुवच नहीं रहता। जो भिक्षु केवल धर्मका सत्कार करते व पूजा करते सुवच होता है, उसे मैं सुवच कहता इं। इसलिये भिक्षुओं! तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये " केवल धर्मका सत्कार करते पूजा करते मुवच होऊंगा, मृदु भाषी होऊंगा।"
भिक्षुओ! ये पांच वचनपथ (बात कहनेके मार्ग) हैं जिनसे कि दूसरे तुमसे बात करते बोलते हैं। (१) कालसे या अकालसे, (२) भूत पर्याय) से या अभूतमे, (३) स्नेहसे या परुषता (क्टुता) से, (४) सार्थकतासे या निरर्थकतासे, (५) मैत्री पूर्ण चित्तस या द्वेषपूर्ण चित्तसे । भिक्षुमओ ! चाहे दुसरे कालसे बात करें या अकालसे, मृतसे अभूतसे, या स्नेहसे या द्वेषसे, सार्थक या निरर्थक, मैत्रीपूर्ण चित्तसे या द्वेषपूर्ण चित्तसे तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये-- "मैं अपने चित्तको विकारयुक्त न होने दूंगा और न दुवर्चन निका. लंगा, मैत्रीमावसे हितानुकम्पी होकर विहरूंगा न कि द्वेषपूर्ण चित्तसे । उस विरोधी व्यक्तिको भी मैत्रीमाव चितसे मप्लावित कर विहरूंगा। उसको लक्ष्य करके सारे लोकको विपुल, विशाल, प्रमाण मैत्रीपूर्ण चित्तसे मलावित कर मवैरता-अव्यापादिता (द्रोहरहितता) से परिप्लावित (भिगोकर ) विहरूंगा।" इस प्रकार मिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com