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दूसरा भाग। (१) जैसे कोई पुरुष हाथमें कुदाल लेकर भाए और वह ऐसा कहे कि मैं इस महापृथ्वीको अपृथ्वी करूंगा, वह जहांतहां खोदे, मिट्टी फेंके और माने कि यह अपृथ्वी हुई तो क्या यह महा पृथ्वीको अपृथ्वी कर सकेगा ? नहीं, क्यों नहीं कर सकेगा ? महापृथ्वी गंभीर है, अप्रमेय है। वह अपृथ्वी (पृथ्वीका अभाव) नहीं की जासक्ती । वह पुरुष नाहक में हैरानी और परेशानीका मागी होगा। इसी प्रकार पृथ्वीके समान चित्त करके तुम्हें क्षमावान होना चाहिये।
(२) और जैसे भिक्षुओ ! कोई पुरुष लाख, हलदी, नील का मजीठ लेकर भाए और यह कहे कि मैं आकाशमें रूप (चित्र) लिस्वंगा तो क्या वह आकाशमें चित्र लिस्व सकेगा ? नहीं, क्योंकि
आकाश मरूपी है, अदर्शन है. वहां रूपका लिखना सुकर नहीं। वह पुरुष नाहकमें हेगनी और परेशानीका मागी होगा। इसी तरह पांच वचनपथ होनेपर भी तुम्हें सर्वलोकको भाकाश समान चित्तसे वैररहित देखकर रहना चाहिये ।
(३) और जैसे भिक्षुओ! कोई पुरुष जलती तृष्णाकी उल्का को लेकर भाए और यह कहे कि मैं इस तृष्णा उल्कासे गंगानदीको संतप्त करूंगा, परितप्त करूंगा तो क्या यह जलती तृण उल्कासे गंगा नदीको संतप्त कर सकेगा ? नहीं, क्योंकि गंगानदी गंभीर है, अपमेय है। वह जलती तृण उल्कासे नहीं संतप्त की जासकी। वह पुरुष नाह. को हैरानी उठाएगा। इसीप्रकार पांच वचनपथके होते हुए तुम्हें यह सीखना चाहिये कि मैं सारे लोकको गंगा समान चित्तसे मप्रमाण भवैरभावसे परिप्लावित कर विहरूंगा।
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