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दूसरा भाग। जैन सिद्धांतानुसार भी यही बात है कि राग, द्वेष, मोहको त्यागे विना वीतरागता सहित ध्यान नहीं होसकेगा। इसलिये इन भावोंको दूर करनेका ऊपर लिखित प्रयत्न करे। दुसरा प्रयत्न मात्मध्यानका भी जरूरी है। जितना२ आत्मध्यान द्वारा भाव शुद्ध होगा उतना२ उन कषायरूपी कर्मों की शक्ति क्षीण होगी, जो भावी कालमें अपने विपाकपर रागादि भावोंके पैदा करते हैं। इस तरह ध्यानके वलसे हम उस मोहकर्मको जितना२ क्षीण करेंगे उतना२ रागद्वेषादि भाव नहीं होगा।
वास्तवमें सम्यग्दर्शन ही रागादि दूर करनेका मूल उपाय है। जिसने संसारको असार व निर्वाणको सार समझ लिया वह अवश्य रागद्वेष मोहके निमित्तोंसे शृद्धापूर्वक पचेगा और वैराग्य के निमित्तोंमें वर्तन करेगा। धैर्य के साथ उद्योग करनेसे ही रागादि भावोंपर विजय प्राप्त होगी।
नैन सिद्धांतके कुछ उपयोगी वाक्य ये हैंसमाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहते हैं
मविद्याभ्याससंस्कारवश क्षिप्यते मनः । तदेव ज्ञानसंस्का: स्वास्तत्वेऽवतिष्ठते ।। ३७ ॥
भावार्थ-अविद्याके अभ्यासके संस्कारसे मन लाचार होकर रागी, द्वेषी, मोही होजाता है, परन्तु यदि ज्ञानका संस्कार डाला जावे, सत्य ज्ञानके द्वारा विचारा जावे तो यह मन स्वयं ही मात्माके सच्चे स्वरूपमें ठहर जाता है।
यदा मोहात्मजायेते रागद्वेषौ तपस्विनः । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ॥ ३९॥
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