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नवोद तत्वज्ञान भावार्थ-जब किसी तपस्वीके मनमें मोहके कारण रागद्वेष पैदा होजावे उसी समय उसे उचित है कि वह शान्तभावसे अपने . स्वरूपये ठहरकर निर्वाणस्वरूप भरने मात्माकी भावना रे गगद्वेष लौलिक संसर्गसे होते हैं मतएव उसको छोड़े।
जनेभ्यो वाक् तत: स्पन्दो मनश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनेयोगो ततस्त्यजेत् ॥ २॥
भावार्थ-जगतके लोगोंसे बातालाप करनेमे मनकी चंचलता होती है, तब चित्त राग, द्वेष, मोह विकार पैदा होजाते हैं । इसलिये योगीको उचित है कि मानवों संसर्गको छोड़े। .! - स्वामी पूज्यपाद इष्टोपदेशमें कहते हैं
अभवञ्चित्तविक्षेपे एकांते सत्त्वसंस्थितिः । अभ्यस्येदभियोगेन योगी त निजात्मनः ॥ ३६ ।।
मावार्थ-तत्वोंको मले प्रकार जाननेवाला योगी ऐसे एकांतमे जावे जहां चित्तको कोई क्षोमके या गवेष पैदा करनेके निमित्त न हो और वहां मासन लगाकर तत्वम्वरूपमें तिछे मालस्य निद्राको जीते और अपने निर्वाणस्वरूप अमाका अभ्यास करे ।
संसारमें भकुशल धर्म या पार पांच हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनसे बचने के लिये पांच पांच भावनाए जैन सिद्धांतमें बताई हैं। जो उनपर ध्यान रखता है वह उन पांचों पापोंसे बच सक्ता है।
श्री उमास्वामी महाराज तत्वाथमत्रमें कहते हैं
(२) हिंसासे बचनेकी पांच भावनाएँवाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेषणसमि-7 लोकिता नभो ननानि पञ्च ।।४-७॥
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