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१२.1
परोऽप्युत्पथमापन्नो निषेधु युक्त एव सः । किं पुनः स्वमनोत्यर्थं विषयोत्पथयायिषत् ॥ १७५ ॥
भावार्थ- दूसरा कोई कुमार्गगामी होगया हो तो भी उसे मनाही करना चाहिये, यह तो ठीक है परन्तु विषयोंके कुमार्गमे जाने वाले अपने मनको अतिशयरूप क्यों नहीं रोकना चाहिये ? अवश्य रोकना चाहिये ।
भज्ञानाद्यदि मोहाद्यत्कृतं कर्म सुकुत्सितम् । ब्यावर्तयेन्मनस्तस्मात् पुनस्तन्न समाचरेत् ॥ १७६ ॥
भावार्थ-यदि अज्ञानके वशीभूत होकर या मोहके माधीन होकर जो कोई अशुभ काम किया गया हो उससे मनको हटा लेवे फिर उस कामको नहीं करे।
धर्मस्य संचये यत्नं कर्मणां च परिक्षये । साधूनां चेष्टित चित्तं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ १९३ ॥
भावार्थ-साधुओंका उद्योग धर्मके संग्रह करनेमें तथा कर्मों के क्षय करने में होता है तथा उनका चित्त ऐसे चारित्रके पालनमें होता है जिससे सर्व पापोंका नाश होजावे ।
साधकको नित्य प्रति अपने दोषोंको विचार कर अपने भावोंको निर्मल करना चाहिये।
श्री अमितगति भाचार्य सामायिक पाठमें कहते हैंएकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिन : प्रमादतः संचरता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता तदस्तु मिथ्या दुग्नुष्ठितं तदा ॥५॥
भावार्थ-हे देव ! प्रमादसे इधर उधर चलते हुए एकेन्द्रिय मादि प्राणी यदि मेरे द्वारा नाश किये गये हों, जुदे किये गए हों,
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