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जैन बौद तत्वज्ञान। [१२५. निर्विकल्पचिदानन्दः परमेष्ठो सनातनः। दोषातोतो जिनो देवस्तदुपझं श्रुतिः पराः ॥७॥ निम्बरो निम्म्मो नित्यानन्दपदाधिनः । धर्मदिक्कम धिक् साधुगुरुरित्युच्यते बुधैः ॥ ८ ॥ ममोषां पुण्यहेतूनां श्रद्धानं ताजगधते । तदेव परमं तत्व तदेव परमं पदम् ॥ ९॥ संवेगादिपरः शान्तस्तत्वनिश्चयवानरः। जन्तुजन्मजरातीत: पदवीमवगाहते ॥ १३ ॥
भावार्थ-कल्याणकारी पदार्थो का श्रद्धान रखना सर्व प्राणीमात्रका कल्याण करनेवाला है। श्रद्धानके विना सर्व ही व्रतचारित्र मोक्षके कारण नहीं होसक्ते । प्रथम पदार्थ सपा शास्ता या देव है जो निर्विकला हो, चिदानंद पूर्ण हो, परमात्म पदधारी हो, स्वरूपकी अपेक्षा सनातन हो, सर्व रागादि दोष रहित हो, कर्म विजई हो वही देव है। उसीका उपदेशित वचन सच्च। शास्त्र है या धर्म है । जो वस्त्रादि परिग्रह रहित हो, खेती आदि मारम्भसे मुक्त हो, नित्य भानन्द पदका अर्थी हो, धर्मकी तरफ दृष्टि रखता हो वही साधु. या गुरु कर्मों को जलानेवाला बुद्धिवानों द्वारा कहा गया है । इस. तरह देव, शास्त्र या धर्म तथा साधुका श्रद्धान करना, जो पुण्यके कारण हैं, सम्यग्दर्शनरूपी परम तत्व कहा गया है, यही श्रद्धा परमपदका कारण है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य पंचास्तिकायमें कहते हैंमरहतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्टा । अणुगमणं वि गुरुणं पसत्थरागो त्ति वुच्चति ॥ १३६ ॥ भावार्थ-साधकका शुभ राग या प्रीतिमाव वही कहा जाता
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