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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१३१ सो मैं इस प्रकार जानता था कि उत्पन्न हुमा यह मुझे मिष्कामता मादि वितर्क-यह न भात्म आबाधा, न पर आबाधा, न उभय आबांधाके लिये है यह प्रज्ञावर्द्धक है, अविघात पक्षिक है और निर्वागको लेजानेवाला है। रातको भी या दिनको भी यदि मैं ऐसा वितर्क करता, विचार करता तो मैं भय नहीं देखता। किंतु बहुत देर वितर्क व विचार करते मेरी काया क्लान्त (थकी) होजाती, कायाके क्लान्त होनेपर चित्त अपहत ( शिथिल ) होजाता, चित्तके अपहत होनेपर चित्त समाधिसे दूर हट जाता था। सो मैं अपने भीतर (अध्यात्ममें) ही चित्तको स्थापित करता था, बढ़ाता था, एकाग्र करता था। सो किस हेतु ? मेरा चित्त कहीं अपहत न होजावे।
भिक्षुओ ! भिक्षु जैसे जैसे अधिकतर निष्कामता वितर्क, अव्यापाद वितर्क या अविहिंसा वितर्कका अधिकतर अनुवितर्क करता है तो वह कामादि वितर्कको छोड़ता है, निष्कामता आदि वितर्कको बढ़ाता है। उस बाधित निष्कामता अव्यापाद, अविहिंसा वितककी ओर झुकता है । जैसे भिक्षुओ ! ग्रीषमके अंतिम भागमें जब सभी फसल जमाकर गांममें चली जाती है ग्वाला गायोंको रखता है। वृक्षके नीचे या चौड़े में रहकर उन्हें केवल याद रखना होता है कि ये गायें हैं। ऐसे ही भिक्षुओ ! याद रखना मात्र होता था कि ये धर्म हैं। भिक्षुओ ! मैंने न दबनेवाला वीर्य (उद्योग) भारंभ कर रखा था, न भूलनेवाली स्मृति मेरे सन्मुख थी, शरीर मेरा अचंचल, शान्त था, चित्त समाहित एकाग्र था सो मैं भिक्षुभों ! प्रथम ध्यानको, द्वितीय ध्यानको, तृतीय ध्यानकों, चतुर्थ
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