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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१११ चौवीसवें महावीर या निग्रन्थनाथपुत्रने कुमारवयमें-राज्य किये विना ही गृहवास छोड दीक्षा ली व साधु हो आत्मध्यान करके मुक्ति प्राप्त की। शेष-१ ऋषभ, २ मजित, ३ संभव, ४ अभिनंदन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपार्श्व, ८ चंद्रप्रभु, ९ पुष्पदंत, १० सीतल, ११ श्रेयांश, १३ विमल, १४ अनंत, १५ धर्म, १६ शांति, १७ कुंथु, १८ भरह, २० मुनिसुव्रत, २१ नमि इस तरह १९ तीथैकरोने दीर्घकालतक राज्य किया, गृहस्थके योग्य कामभोग भोगे, पश्चात् अधिक वय होनेपर गृहत्याग निग्रंथ होकर मात्मध्यान करके परम सुख पाया व निर्वाण पद प्राप्त कर लिया । इसलिये परिग्रहके त्याग करनेसे ही लालसा छूटती है । पर वस्तुका सम्बन्ध लोभका कारण होता है। यदि १०) भी पास है तो उनकी रक्षाका लोम है, न खर्च होनेका लोम है। यदि गिर जाय तो शोक होता है। जहां किसी वस्तुकी चाह नहीं, तृष्णा नहीं, राग नहीं वहां ही सच्चा सुख भीतरसे झलक जाता है। इसलिये इस सूत्रका तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय भोग त्यागने योग्य हैं, दुःखके मूल हैं, ऐसी श्रद्धा रखके घरमें वैराग्य युक्त रहो । जब प्रत्याख्यानावरण कषाय ( जो मुनिके संयमको रोकती है ) का उपशम होजावे तब गृहत्याग साधुके अध्यात्मीक शांति और सुखमें विहार करना चाहिये।
तत्वाथसूत्र में अध्यायमें कहा है कि परिग्रह त्यागके लिये पांच भावनाएं मानी चाहिये:
मनोज्ञामनोज्ञे न्द्रयविषयरागद्वेषर्वजनानि पञ्च ॥ ८ ॥ . भावार्थ-इष्ट तथा मनिष्ट पांचों इन्द्रियों के विषयों में या पदार्थोमें रागद्वेष नहीं रखना, मावश्यक्तानुसार समभावसे भोजनपान कर लेना। ....
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