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दूसरा माण।
११.]
नोट-इस सूत्रका सार यह है कि राग द्वेष मोह ही दुःखके कारण हैं। उनकी उत्पत्तिके हेतु पांच इन्द्रियों के विषयोंकी लालसा है। इन्द्रिय भोग योग्य पदार्थोका संग्रह अर्थात् परिग्रहका सम्बन्ध जहांतक है वहांतक राग द्वेष मोहका दुर होना कठिन है । परिग्रह ही सर्व सांसारिक कष्टोंकी भूमि है। जैन सिद्धांतमें बताया है कि पहले तो सम्यग्दृष्टी होकर यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिये कि विषयभोगोंसे सच्चा सुख नहीं प्राप्त होता है-सुखमा दिखता है परन्तु सुख नहीं है । अतीन्द्रिय सुख जो अपना स्वभाव है वही सच्चा सुख है। करोड़ों जन्मोंमें इस जीवने पांच इन्द्रियोंके सुख भोगे हैं परन्तु यह कभी तृप्त नहीं होसका। ऐसी श्रद्धा होजानेपर फिर यह सम्यग्दृष्टी उसी समय तक गृहस्थमें रहता है जबतक भीतरसे पूरा वैराग्य नहीं हुमा । घरमें रहता हुमा भी वह अति लोभसे विरक्त होकर न्यायपूर्वक व संतोषपूर्वक आवश्यक इन्द्रिय भोग करता है तब वह अपनेको उस अवस्थासे बहुत अधिक सुख शांतिका भोगनेवाला पाता है। जब वह मिथ्यादृष्टी था तो भी गृहवासकी आकुलतासे वह बच नहीं सक्ता । उसकी निरन्तर भावना यही रहती है कि कब पूर्ण वैराग्य हो कि कब गृहवास छोड़कर साधु हो परम सुख शांतिका स्वाद लूं । जब समय बाजाता है तब वह परिग्रह त्यागकर साधु होजाता है । जैनोंमें वर्तमान युगके चौवीस महापुरुष तीर्थकर होगए हैं, जो एक दुसरेके बहुत पीछे हुए। ये सब राज्यवंशी क्षत्रिय थे, जन्मसे भात्मज्ञानी थे। इनमें से बारहवें वासपूज्य, उन्नीसवें मल्लि, बाईसवें नेमि, तेईसवें पार्श्वनाथ,
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