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दूसरा भाग। भावार्थ-निश्चमसे सर्व ही स्थावर कायिक जीव-पृथ्वी, जल, मग्नि, वायु तथा वनस्पति कायिक जीव मुख्यतासे कर्मफल चेतना रखते हैं अर्थात् कर्मो का फल सुख तथा दुःख वेदते हैं । द्वेन्द्रियादि सर्व त्रसजीव कर्मफल चेतना सहित कर्म चेतनाको भी मुख्यतासे वेदते हैं तथा अतीन्द्रिय ज्ञानी ईत् आदि शुद्ध ज्ञान चेतनाको ही वेदते हैं। समयसार कलशमें कहा है
ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धं । मज्ञानसंचेतनया तु धादन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि पन्धः ॥३१॥
भावार्थ-ज्ञानके अनुभवसे ही ज्ञान निरन्तर अत्यन्त शुद्ध झलकता है। अज्ञानके अनुभवसे बंध दौड़कर आता है और ज्ञानकी शुद्धिको रोकता है । भावार्थ-शुद्ध ज्ञानका वेदन ही हितकारी है ।
(११) मज्झिमनिकाय चूल दुःख स्कंध सूत्र । __एक दफे एक महानाम शाक्य गौतम बुद्धके पास गया और कहने लगा-बहुत समयसे मैं भगवानके उपदिष्ट धर्मको इस प्रकार जानता हूं । लोभ चित्तका उपक्लेश (मक ) है, द्वेष चित्तका उपक्लेश है, मोह चित्तका उपक्लेश है, तौ भी एक समय लोभवाले धर्म मेरे चित्तको चिपट रहते हैं तब मुझे ऐसा होता है कि कौनसा धर्म ( वात ) मेरे भीतर ( मध्यात्म ) से नहीं छूटा है।
बुद्ध कहते हैं-वही धर्म तेरे भीतरसे नहीं छूटा जिससे एक समय लोभधर्म तेरे चित्तको चिपट रहते हैं। हे महानाम ! यदि वह धर्म भीतर से छूटा हुआ होता तौ तु घरमें वास न करता, कामोप
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