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दुसरा भाग। श्री चन्द्रकृत वैराग्य मणिमालामें हैमा कुरु यौवनधनगृहगई तब काठस्तु हरिष्यति सर्व । इंद्रजालमिदमफलं हित्वा मोक्षपदं च गवेषय मत्वा ॥१८॥ नीलोत्पलदलगतजलचपलं इंदजालविद्युत्समतरलं । किं न वेत्ति संसारमसारं भ्रांत्या जानासि त्वं सारं ॥१९॥
भावाय-यह युवानीका रूप, धन, घर मादि इन्द्रजालके समान चंचल हैं व फल रहित हैं, ऐसा जानकर इनका गर्व न कर । जब मरण आयगा तब छूट जायगा ऐसा जानकर तु निर्वाणकी खोज कर। यह संसारके पदार्थ नीलकमल पत्तेपर पानीकी बुन्दके समान या इन्द्रधनुषके समान या विजलीके समान चंचल हैं। इनको तु असार क्यों नहीं देखता है। भ्रमसे तु इनको सार जान रहा है।
मूलाचार भनगार भावनामें कहा हैमहिणिछण्णं णालिणिवद्धं कलिमळभरिदं किमिउळपुण्ण । मंसविलितं तयपडिछण्ण सरीरघरं तं सददमचोक्ख ॥ ८३ ॥ एदारिसे सरीरे दुग्गंधे कुणिमपूदियमचोक्खे । सरणपडणे असारे रागंण करिति सप्पुरिसा ॥ ८४ ॥
भावार्थ-यह शरीररूपी घर हड्डियोंसे बना है, नसोंसे बंधा है, मक मुत्रादिसे भरा है, कीड़ोंसे पूर्ण है, मांससे भरा है, चमड़ेसे ढका है, यह तो सदा ही अपवित्र है। ऐसे दुर्गंधित, पीपादिसे भरे अपवित्र सडने पड़ने वाले, सार रहित, इस शरीरसे सत्पुरुष राम नहीं करते हैं।
तीसरी बात वेदनाके सम्बन्ध कही है। कामभोग सम्बन्धी मुख दुःख वेदनाका कथन साधारण जानकर जो ध्यान करते हुए
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