________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
[ ११५
भोगरदीए णासो नियदो विग्वा य होति यदिवडुगा । परदीप सुभाविदाए ण णासो ण विग्धो वा ॥ १२७१ ॥ णचा दुरंतमदुव मचाणमतप्पयं व्यविस्सामं । भोगसुई तो तझा विरदो मोक्खे मदि कुज्जा ॥ १२८३॥ भावार्थ - अध्यात्म में रति स्वाधीन है, भोगों में रति पराधीन है भोगों से तो छूटना पड़ता है, अध्यात्म रतिमें स्थिर रह सक्ता है । भोमोंका सुख नाश सहित है व अनेक विघ्नोंसे भरा हुआ है । परन्तु मलेप्रकार भाया हुआ आत्मसुख नाश और विघ्नसे रहित है । इन इन्द्रियोंके भोगोंको दुःखरूपी फल देनेवाले, अथिर, अशरण, अतृप्तिके कर्ता तथा विश्राम रहित जानकर इनसे विरक्त हो, मोक्ष के लिये भक्ति करनी चाहिये ।
(१२) मज्झिमनिकाय अनुमानसूत्र ।
एक दफे महा मौद्गलायन बौद्ध भिक्षुने भिक्षुओंसे कहा :चाहे भिक्षु यह कहता भी हो कि मैं आयुष्मानों ( महान भिक्षु ) के वचन ( दोष दिखानेवाले शब्द) का पात्र हूं, किन्तु यदि वह दुर्वचनी है, दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्मोंसे युक्त है और अनुशासन (शिक्षा) ग्रहण करने में अक्षत्र और अप्रदक्षिणा ग्राही ( उत्साह र हित ) है तो फिर सब्रह्मचारी न तो उसे शिक्षाका पात्र मानते हैं, न अनुशासनीय मानते हैं न उस व्यक्तिमें विश्वास करना उचित मानते हैं ।
दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्म - (१) पापकारी इच्छाओंके वशीभूत होना, (२) क्रोधके वश होना, (३) क्रोधके हेतु ढोंग करना, (४) क्रोधके हेतु डाह करना, (५) कोषपूर्ण वाणी कहना, (६)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com