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मैनपौर तत्वज्ञान। बन्यत्र वा कचिदशे प्रशस्ते प्रामुके समे । चेतनाचेतनाशेषध्यानविघ्नविवर्जिते ॥ ९१ ॥ भूतले वा शिमपट्टे सुखासीनः स्थितोऽथवा । सममृज्वायतं गात्रं नि:कंपावयवं दबत् ॥९२ ॥ नासामन्यस्तनिष्पंदलोचनो मंदमुच्छ्वसन् । द्वात्रिंशदोपनिमुक्तकायोत्सर्गव्यवस्थितः ॥ ९३ ॥ प्रत्याहृत्याक्षलंटाकास्तदर्थेभ्यः प्रयत्नतः । चिंतां चाकृष्य सर्वेभ्यो निरुध्य ध्येयवस्तुनि ॥ ९४ ॥ निरस्तनिद्रो निर्भीतिनिरालस्यो निरंतरं । वरूपं वा पररूपं वा ध्यायेदंतविशुद्धये ॥ ९५ ॥
भावार्थ-ध्यानीको उचित है कि दिन हो या रात, सूने स्थानमें या गुफामें या किसी भी ऐसे स्थानमें बैठे जो स्त्री, पुरुष, नपुंसक या क्षुद्र जंतुओंसे रहित हो, सचित्त न हो, रमणीक, व सम भूमि हो जहाँपर किसी प्रकारके विघ्न चेतनकृत या अचेतनकृत ध्यानमें नहोसकें । जमीन पर या शिलापर सुस्वासनसे बैठे या खड़ा हो, शरीरको सीधा व निश्चल रखे, नाशाग्रदृष्टि हो, लोचन पलक रहित हो, मंद मंद श्वास माता हो, ३२ दोषरहित कामसे ममता छोड़के, इन्द्रिय रूपी लुटेरोंको उनके विषयोंकी तरफ जानेसे प्रयत्न सहित रोककर तथा चित्तको सर्वसे हटाकर एक ध्येय वस्तुमें लगावे। निन्द्राका विजयी हो, आलसी न हो, भयरहित हो। ऐसा होकर मतरन विशुद्ध भावके लिये अपने या परके स्वरूपका ध्यान करे ।
एकांत सेवन व तत्व मनन इन्द्रिय व मनके जीतने का उपाय है। ... (४) चौथी बात इस सत्रमें बताई है कि बोधि या परम
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