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वृष्णा रहितता, परम भाव, शांति इत्यादि उसी समरसी भावके ही भाव हैं इन सबका प्रयोजन मात्मध्यानका सम्बन्ध है।
इनमें जो धर्मविषय शब्द भाया है-ऐसा ही शब्द जैन सिद्धांतमें धर्मध्यानके भेदोंमें भाया है। देखो तत्वार्य सूत्र
" मानापायविपाकसंखानविचयाय धय " ॥३६॥९
धर्मध्यान चार तरहका है (१) मज्ञाविचय-शासकी भाज्ञाके अनुसार तत्वका विचार, (२) अपाय विचय-मेरे व अन्योंके राग द्वेष मोहका नाश कैसे हो, (३) विपाक विचय-कौके पच्छे या बुरे फलको विचारना, (४) संस्थान विचय-लोकका बा अपना स्वरूप विचारना ।
बोधि शब्द भी जैनसिद्धांतमें इसी अर्थमें भाया है। देखो बारह भावनाओंके नाम। पहले सर्वास्तवसूत्र में कहे हैं। ११वी भावना बोधि दुर्लभ है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, गर्मित परम ज्ञान या भात्मज्ञानका काम होना बहुत दुर्लभ है ऐसी भावना करनी चाहिये।
(५) पांचमी बात यह बताई है कि वह मिक्षु चार बातोंको टीकर जानता है कि दुःख क्या है, दुःखका कारण क्या है। दुःखका निरोध क्या है तथा दुःख निरोधका क्या उपाय है। .
जैन सिद्धांतमें भी इसी बातको बतानेके लिये कर्मका संयोग नहातक है वहांतक दुःख है । कर्म संयोगका कारण मानव और बंध तत्व बताया है । किनर मावोंसे कर्म भाकर बंध जाते हैं, दुःखका निरोष कर्मका क्षय होकर निर्वाणका लाम है। निर्वाणका
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