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जैन बौद्ध तत्वान। [९: (१) काम या इन्द्रियमोग उपादान, (२) दृष्टि उपादान, (३) शीलव्रत उपादान, (१) मात्मवाद उपादान । इनका भाव यही है कि ये सब उपादान या ग्रहण सम्यक् समाधिमें बाधक हैं। काम उपादानमें साधकके भीतर किंचित् भी इन्द्रियमोगकी तृष्णा. नहीं रहनी चाहिये । दृष्टि उपादानमें न तो संसारकी तृष्णा हो न असंसारकी तृष्णा हो, समभाव रहना चाहिये । अथवा निश्चय नय. तथा व्यवहार नय किसीका भी पक्षबुद्धिमें नहीं रहना चाहिये। तब समाधि जागृत होगी। शीलव्रत उपादानमें यह बुद्धि नहीं रहनी चाहिये कि मैं सदाचारी हूं। साधुके व्रत पालता हूं, इससे निर्वाण होजायगा। यह भाचार व्यवहार धर्म है। मन, वचन, कायका वर्तन है। यह निर्वाण मार्गसे भिन्न है। इनकी तरफसे अहंकार बुद्धि नहीं रहनी चाहिये। आत्मवाद उपादानमें आत्मा सम्बन्धी विकल्प भी समाधिको बाधक है । यह भात्मा नित्य है या अनित्य है, एक है या अनेक है, शुद्ध है या अशुद्ध है, है या नहीं है। किस गुणवाला है, किस पर्यायवाला है इत्यादि आत्मा संम्बन्धी विचार समाधिके समय बाधक है। वास्तवमें आत्मा वचन गोचर नहीं है, वह तो निर्वाण स्वरूप है, अनुभव गोचर है । इन चार उपादानोंके स्यागसे ही समाधि जागृत होगी। इन चारों उपादानोंके होनेका मूल कारण सबसे अंतिम अविद्या बताया है । और कहा है कि साधक भिक्षुकी भविद्या नष्ट होजाती है, विद्या उत्पन्न होती है अर्थात् निर्वाणका स्वानुभव होता है तब वहां चारों ही उपादान नहीं रहते तब वह निर्वाणका स्वयं अनुभव करता है और ऐसा जानता है कि मैं कृतकृत्य हूं, ब्रह्मचर्य पूर्ण हूं, मेरा संसार क्षीण होगया।
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