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दूसरा भाग। होती है कि इच्छित धन मिले। यदि संतोषपूर्वक करे तो संताप कम हो। असंतोषपूर्वक करनेसे बहुत परिश्रम करता है। यदि सफल नहीं होता है तो महान शोक करता है। यदि सफल होगया, इच्छित धन प्राप्त कर लिया तो उस धनकी रक्षाकी चिन्ता करके दुःखित होता है। यदि कदाचित् किसी तरह जीवित रहते नाश होगया तो महान् दुःख भोगता है या आप शीघ्र मर गया तो मैं धनको भोग न सका ऐसा मानकर दुःख करता है । भोग सामग्रीके लाभके हेतु कुटुम्बी जीव परस्पर लड़ते हैं, राजालोग लड़ते हैं, युद्ध होजाते हैं, भनेक मरते हैं, महान् कष्ट उठाते हैं। उन्हीं भोगोंकी लालसासे धन एकत्र करनेके हेतु लोग झूठ बोलते, चोरी करते, डाका डालते, परस्त्री हरण करते हैं। जब वे पकड़े जाते हैं, राजाओं द्वारा भारी दंड पाते हैं, सिर तक छेदा जाता है, दुःखसे मरते हैं। इन्हीं काम भोगकी तृष्णावश मन वचन कायके सर्व ही अशुभ योग कहाते हैं जिनसे पापकर्मका बंध होता है और जीव दुर्गतिमें जाकर दुःख भोगते हैं । जो कोई काम भोगकी तृष्णाको त्याग देता है वह इन सब इस लोक सम्बन्धी तथा परलोक सम्बन्धी दुःखोंसे छूट जाता है। वह यदि गृहस्थ हो तो संतोषसे मावश्यक्तानुसार कमाता है, कम खर्च करता है, न्यायसे व्यवहार करता है। यदि धन नष्ट होजाता है तो शोक महीं करता है। न तो वह राज्यदंड भोगता है न मरकर दुर्गतिमें जाता है। क्योंकि वह भोगोंकी तृष्णासे ग्रसित नहीं है। न्यायवान धर्मात्मा है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व मुर्छासे रहित है। साधु तो पूर्ण विरक्त होते हैं। वे पांचों इन्द्रियोंकी इच्छाओंसे बिलकुल विरक्त होते हैं । निर्वा
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