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जैनसिद्धांतमें स्वानुभवको निर्वाण मार्ग बताया है और वह स्वानुभव तब ही प्राप्त होगा जब सर्व विकल्पोंका या विचारोंका या दृष्टियोंका या कामवासनाओंका या अहंकारका व ममकारका त्याग होगा । निर्विकल्प समाधिका लाम ही यथार्थ मोक्षमार्ग है। जहां साधकके भावोंमें स्वात्मरसवेदनके सिवाय कुछ भी विचार नहीं है, वह माप्तत्वमें निर्वाण स्वरूप अपने मात्माको मापसे ग्रहण कर लेता है तब सब मन, वचन, कायके विकल्प छूट जाते हैं।
समयसार कळशम कहा हैमन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत् पृथक् वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञान तथावस्थितम् । मध्यावन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रमाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥४२॥
भावार्थ-ज्ञान ज्ञानस्वरूप होके ठहर गया, और सबसे छूटकर अपने मात्मामें निश्चल होगया, सबसे भिन्न वस्तुपनेको प्राप्त हो गया। उसे ग्रहण त्यागका विकल्प नहीं रहा, वह दोष रहित होगया तब मादि मध्य अत्तके विमागसे रहित सहज स्वभावसे प्रकाशमान होता हुआ शुद्ध ज्ञान समूहरूप महिमाका धारक यह मात्मा नित्य उदय रूप रहता है।
उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहतसर्वशक्तेः पूर्णस्य सन्धारणमात्मनोह ॥४३॥
भावार्य-जब आत्मा अपनी पूर्ण शक्तिको संकोच करके अपनेमें ही अपनी पूर्णताको धारण करता है तब जो कुछ सर्व छोड़ना था सो
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