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दूसरा भाग
व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः । तुषबोध विमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तन्दुरम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ- जो व्यवहारदृष्टिमें मूढ हैं वे मानव परमार्थ सत्यको नहीं जानते हैं। जो तुषको चावक समझकर इस अज्ञानको मनमें धारते हैं वे तुषका ही अनुभव करते हैं, उनको तुष ही चावल मासता हैं । वे चावलको नहीं पासते । निर्वाणको सत्यार्थ समझना यह असं-सार दृष्टि है। समाधिशतक पूज्यपादस्वामी कहते हैंदेहान्तरगतेर्बीज देहेऽस्मिन्नात्मभावना | बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥
भावार्थ - इस शरीर में या शरीर सम्बन्धी सर्व प्रकार संसगौ आपा मानना वारवार शरीर के पानेका बीज है। किंतु अपने ही 'निर्वाण स्वरूप में आपकी भावना करनी शरीरसे मुक्त होने का बीज है । व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागत्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥ ७८ ॥ आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिकं बहिः । तयोरन्तर विज्ञानादभ्यासादच्युतो भवेत् ॥ ७९ ॥ भावार्थ- जो व्यवहार दृष्टिमें सोया हुआ है अर्थात् व्यवहारसे उदासीन है वही आत्मा सम्बन्धी निश्चय दृष्टिसे जाग रहा है। जो व्यवहार में जागता है वह आत्माके अनुभव के लिये सोया हुआ है।
अपने आत्माको निर्वाण स्वरूप भीतर देखके व देहादिकको बाहर देखके उनके भेदविज्ञानसे आपके अभ्याससे यह अविनाशी मुक्ति या निर्वाणको पाता है ।
आगे चलके इस सूत्र में चार उपादानों का वर्णन किया है ।
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