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जैन बौद्ध तत्वान। छूट गया तथा जो कुछ सर्व ग्रहण करना था सो ग्रहण कर लिया। भावार्थ एक निर्वाणस्वरूप मारमा रह गया, शेष सर्व उपादान रह गया।
समाधिशतक पूज्यपादस्वामी कहते हैं:यत्परः प्रतिपाद्योई यत्परान प्रतिपादये।
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १९ ॥
मावार्थ-मैं तो निर्विकल्प हूं, यह सब उन्मत्तपनेकी चेष्टा है कि मैं दुसरोंसे आत्माको समझ लूँगा या मैं दूसरोंको समझा दूँ।
येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽहं न तन्न सा नासौ नको न द्वौ न वा बहुः ॥ २३ ॥
भावार्थ-निस स्वरूपसे मैं अपने ही द्वारा मानमें अपने ही समान अपनेको अनुभव करता हूं वही मैं हूं। अर्थात् अनुभवगोचर हूं । न यह नपुंसक है न स्त्री है, न पुरुष है, न एक है, न दो है, न बहुत है, पर्याप्त सह लिंग व संख्याकी कानासे बाहर है।
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(१०) मज्झिमनिकाय महादुःखस्कंध सूत्र ।
गौतमबुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ ! क्या है कामों ( भोगों) का भास्वाद, क्या है अदिनव ( उनका दुष्परिणाम), क्या है निस्करण (निकास) इसी तरह क्या है रूपों का तथा वेदनाओंका भास्वाद, परिणाम और निस्सरण ।
(१) क्या है कामोंका दुष्परिणाम- यहां कुल पुत्र जिस किसी शिल्पसे चाहे मुद्रासे या गणनासे या संख्वानसे या कृषिसे या वाणिज्यसे, गोपालनसे या वाण-मनसे या राजाकी नौरीसे या
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