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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [८१ (३) आलस्य, (४) उद्वेग-खेद (५) संशय । ये मेरे भीतर हैं या नहीं हैं तथा यदि नहीं हैं तो किन कारणोंसे इनकी उत्पत्ति होसक्ती है। तथा यदि हैं तो उनका नाश कैसे किया जावे तथा मैं कौनसा यत्न करूं कि फिर ये पैदा न हों। आत्मोन्नतिमें ये पांच दोष बाधक हैं
(२) दुसरी बात यह बताई है कि पांच उपादान स्कंधोंकी उत्पत्ति व नाशको समझता है। सारा संसारका प्रपंच नाल इनमें गर्भित है । रूपसे वेदना, वेदनास संज्ञा, संज्ञासे संस्कार, संस्कारसे विज्ञान होता है। ये सर्व अशुद्ध ज्ञान हैं जो पांच इंद्रिय और मनके कारण होते हैं । इनका नाश तत्व मननसे होता है ।
तत्वसारमें कहा है
रूसह तूसइ णिचं इंदियविमये हि संगो मुढो । सकसामो अण्णाणी णाणी एदो दु विवरीदो ।। ३ ।।
भावार्थ-अज्ञानी क्रोध, मान, माया लोभके वशीभूत होकर सदा अपनी इन्द्रियोंसे अच्छे या बुरे पदार्थोको ग्रहण करता हुआ रागद्वेष करके भाकुलित होता है। ज्ञानी इनसे अलग रहता है।
बौद्ध साहित्य में इन्हीं पांच उपादान स्कंघों के क्षयको निर्वाण कहते हैं जिसका अभिप्राय जैन सिद्धांतानुसार यह है कि जितने भी विचार व अशुद्ध ज्ञानके भेद पांच इन्द्रिय व म्नके द्वारा होते हैं, उनका जब नाश हो जाता है तब इद्ध आत्मीक ज्ञान या केवलज्ञान प्रगट होता है। यह शुद्ध ज्ञान निर्वाण स्वरूप आत्माका स्वभाव है।
(३) फिर बताया है कि चक्षु आदि पांच इन्द्रिय और मनसे पदार्थों का सम्बन्ध होकर जो रागद्वेषका मल उत्पन्न ोता है, उसे
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