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बन बौद्ध तत्वज्ञान। [७९ . भावार्थ-हे संभवनाथ स्वामी! आपने यह उपदेश दिया है कि ये इन्द्रियोंके सुल विजलीके चमत्कार के समान नाशवान हैं। इनके भोगनेसे तृष्णाका रोग बढ़ जाता है। तृष्णाकी वृद्धि निरन्तर चिंताका भाताप पैदा करती है। उस आतापसे प्राणी कष्ट पाता है।
श्री रत्नकरण्डमें कहा हैकर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरित दये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥ १२॥
भावाथ-सम्यक्दृष्टी इन्द्रियोंके सुखोंमें श्रद्धा नहीं रखता है व समझता है कि ये सुख पूर्व बांधे हुए पुण्य कर्मोके आधीन हैं, मन्त सहित हैं, इनके भीतर दुःख भरा हुआ है । तथा पाप-कर्मके बन्धके कारण हैं।
श्री कुलभद्राचार्य सार समुच्चयमें कहते हैंइन्द्रियप्रभवं सौख्य सुखाभास न तत्सुखम् ।
तच्च कर्मविषन्धाय दुःखदानकपण्डितम् ।। ७७ ॥
भावार्थ-इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाला सुख सुखसा झलकता है परन्तु वह सच्चा सुख नहीं है। इससे कर्मों का बन्ध होता है व केवल दुःखोंको देनेमें चतुर है।
शक्रचापसमा भोगाः सम दो जलदोपमाः । यौवनं जळरेखेव सर्वमेतदशाश्वतम् ॥ १५१॥
भावाय-ये भोग इन्द्रधनुष के समान चंचल ,है छूट जाते हैं, ये सम्पदाएं बादलों के समान सरक जाती हैं, यह युवानी जलमें खींची हुई रेखाके समान नाश होजाती है। ये सब मोग, सम्पत्ति व युवानी आदि क्षणभंगुर हैं व अनित्य हैं। .. ... ...
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