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जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [७७ सुख या दुःखके अनुभवका विचार नहीं है, उस समय भदुःख मसुख भावका अनुभव करना चाहिये जैसे हम पत्र लिख रहे हैं, मकान साफ कर रहे हैं, पढ़ा रहे हैं। जैन शास्त्रमें कर्मफल चेतना
और कर्म चेतना बताई हैं। कर्मफळ चेतनामें मैं सुखी या मैं दुःखी ऐसा भाव होता है। कर्म चेतनामें केवल राग व द्वेषपूर्वक काम करनेका भाव होता है, उस समय दुःख या सुखका भाव नहीं है । इसीको यहां पाली सूत्रमें. अदुःख असुखका अनुभव कहा है, ऐसा समझमें आता है । ज्ञानी जीव इन्द्रियजनित सुखको हेय अर्थात् त्यागने योग्य जानता है, मात्मसुखको ही सच्चा सुख जानता है । वह सुख तथा दुःखको भोगते हुए पुण्य कर्म व पाप-कर्मका फल समझकर न तो उन्मत्त होता है और न क्लेशभाव युक्त होता है। जैन सिद्धांतमें विपाकविचय धर्मध्यान बताया है कि सुख व दुःखको अनुभव करते हुए आने ही कर्मों का विपाक है ऐसा समझना चाहिये।
श्री तत्वार्थसारमें कहा हैद्रव्यादिप्रत्ययं कर्म फलानुभवनं प्रति । भवति प्रणिवानं यद्विपाकवि चयस्तु सः ॥ ४२-७ ॥
भावार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काक भादिके निमित्तसे जो कर्म अपना फल देता है उस समय उसे अपने ही पूर्व किये हुए कर्मका फल अनुभव करना विपाक विचय धर्मध्यान है ।
इष्टोपदेशमें कहा हैवासनामात्रमेक्तत्सुख दुख च देहिनां । तथा मयत्येते मोगा रोगी इवापदि ॥६॥
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