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दुसरा भाग। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें कहते हैंमास्थिस्थूलतुलाकलापघटित नद्धं शिरास्न युमिश्वर्माच्छादितमस्रमान्द्रपिशितलिप्तं सुगुप्त खलैः । कर्मागतिभिरायुरुच्चनिगलालानं शरीरालयं कारागारमवेहि ते इतमते प्रतिं वृथा मा कथाः ॥ ५९॥
भावार्थ-हे निर्बुद्धि : यह शरीररूपी कैदखाना तेरे लिये धर्मरूपी दुष्ट शत्रुओंने बनाकर तुझे कैरमें डाल दिया है। यह कैदखाना हड्डियोंके मोटे समूहोंसे बनाया गया है. नशोंके जालसे बंधा गया है । रुधिर, पीप, मांससे भरा है, चमड़ेसे ढका हुमा है, मायुरूपी बेडियोंसे जकड़ा है । ऐसे शरीरमें तु वृषा मोह न कर ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य तत्वार्थसारमें कहते हैंमानाकृमिशताकीर्णे दुर्गन्धे मळपुरते । मात्मनश्च परेषां च क शुचित्वं शरीरके ॥ ३६-६ ॥
भावार्थ-यह शरीर अनेक तरहके सैंकड़ों कीरोंसे मरा है। भूलसे पूर्ण है। यह अपने को व दुसरेको अपवित्र करनेवाला है, ऐसे शरीरमें कोई पवित्रता नहीं है, यह वैराग्य के योग्य है।
(२) वेदना-दूसरा स्मृति-प्रस्थान यह बताया है कि मुखको मुख, दुःखको दुःस्व, असुख-अदुःखको असुख-मदुःख-जैसा इनका स्वरूप है वैसा स्मरणमें लेवे। सांसारिक सुखका भाव तब होता है जब कोई इष्ट वस्तु मिल जाती है उस समय मैं मुखी यह भाव होता है । दुःखका भाव तब होता है जब किसी अनिष्ट वस्तुका संयोग हो या इष्ट वस्तुका वियोग हो या कोई रोगादि पीड़ा हो। जब हम किसी ऐसे कामको कर रहे हैं, जहां रागद्वेष तो हैं परन्तु
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