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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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इच्छाका विजयी, क्रोध, मान, माया, लोभरहित व माया, मिथ्यात्व भोगोंकी इच्छारूप निदान शल्यसे रहित तथा मान बढ़ाई व पूजा मादिकी चाह से रहित होना चाहिये ।
श्री देवसेनाचार्य सत्यसारमें कहते हैं
काहाळा हे सरिसो सुहदुक्खे तह य जीविए मरणे । बंधो मरयसमाणो ज्ञाणसमत्थो हु सो जोई ॥ ११ ॥ राया दिया विभाषा बहिरंतर उहविप्प मुत्तणं । एयग्गमणो झायहि णिरंजणं णिययमप्पाणं ॥ १८ ॥ भावार्थ जो कोई साधु लाभ व अलाभमें, सुख व दुःखमें, जीवन या मरणमें, बन्धु व मित्रमें समान बुद्धि रखता है वही ध्यान करनेको समर्थ होसक्ता है। रागादि विभावोंको व बाहरी व मनके भीतर के विकल्पोंको छोड़कर एकाग्र मन होकर अब आपको निरंजन रूप ध्यान कर मोक्ष पात्र ध्यानी साधु कैसे होते हैं । श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चय में कहते हैं
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संगादिरहिता बीरा रागादिमळवर्जिताः ।
शान्ता दान्तास्तपोभूषा मुक्तिकांक्षणतत्पराः ॥ १९६ ॥ मनोवाक्काययोगेषु प्रणिधानपरायणा: ।
वृताढ्या ध्यानसम्पन्नास्ते पात्रं करुणापराः ॥ १९७ ॥ अहो हि शमे येषां विग्रहं कर्मशत्रुभिः । विषयेषु निरासङ्गास्ते पात्रं यतितत्तमाः ॥ २०० ॥ यैर्ममत्वं सदा त्यक्तं स्वकायेऽपि मनीषिभिः ।
ते पात्रं संयतात्मानः सर्वसत्यहिते रताः ॥ २०२ ॥ भावार्थ- जो परिग्रह आदिसे रहित हैं, धीर हैं, राग, द्वेष, मोहके मलसे रहित हैं, शांतचित्त हैं, इन्द्रियों के दमन करनेवाले हैं,
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