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दुसरा मार्ग |
(६) मज्झिमनिकाय सल्लेख सूत्र |
भिक्षु महाचुन्द गौतमबुद्ध से प्रश्न करता है जो यह आत्मबाद सम्बन्धी या लोकवाद सम्बन्धी अनेक प्रकार की दृष्टियां (दर्शनगत) दुनिया में उत्पन्न होती हैं उनका प्रहाण या त्याग कैसे होता है ? गौतम समझाते हैं
जो ये दृष्टियां उत्पन्न होती हैं, जहां ये उत्पन्न होती हैं, जहां यह आश्रय ग्रहण करती हैं, जहां यह व्यवहृत होती हैं वहां यह मेरा नहीं " न यह मैं हूं " " न मेरा यह आत्मा है " इसे इसप्रकार यथार्थ रीतिसे ठीकसे जानकर देखनेवर इन दृष्टियोंका प्रहाण या त्याग होता है ।
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होसकता है यदि कोई भिक्षु कार्मोसे विरहित होकर प्रथम ध्यानको या द्वितीय ध्यानको या तृतीय ध्यानको या चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरे या कोई भिक्षु रूप संज्ञा (रूपके विचार ) को सर्वथा छोड़ने से, प्रतिघ ( प्रतिहिंसा ) की संज्ञाओंके सर्वथा भस्त हो जाने से वानापने की संज्ञाओंको मनमें न करनेसे 'आकाश अनन्त' है इस आकाश आनन्द्र आपतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको अतिक्रमण करके 'विज्ञान अनन्त है - इस विज्ञान आनन्द्र पतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको सर्वथा अति'क्रमण करके 'कुछ नहीं' इस आकिंचन्य आपतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको सर्वथा अतिक्रमण करके नैवसंज्ञा-नासंज्ञा आपतन ( जहां न संज्ञा ही हो न असंज्ञा ही हो ) को प्राप्त हो विहरे । उस भिक्षुके मनमें ऐसा हो कि सल्लेख ( तप ) के साथ विहर
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