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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । - चौथा नैवसंज्ञाना संज्ञा आयतनको कहा है। उसका भाव यह है कि किसी वस्तुका नाम है या नाम नहीं है इस विकल्पको हटाकर स्वानुभवगम्य निर्वाणपर लक्ष्य लेजाओ।
ये सब सम्यक् समाधिके प्रकार हैं। अष्टांग बौद्धमार्ग सम्पक्समाधिको सबसे उत्तम कहा है। इसी तरह जैन सिद्धांत मनसे विकल्प हटानेको शून्यरूप आकाशका, ज्ञानगुणका, मार्किचन्य भावका व नामादिकी कल्पना रहितका ध्यान कहा गया है । तत्वानुशासनमें कहा हैतदेवानुभवश्वायमेकप्रयं परमृच्छति । तथात्माधीनमानंदमेति वाचामगोचरं ॥ १७० ॥ यथा निर्वातदेशस्य: प्रदीपो न प्रकंपते । तथा स्वरूपनिष्ठोऽयं योगी नकाप्रयमुज्झति ।। १७१॥ . तदा च परमेकाप्रयाबहिरर्थेषु सरस्वपि । अन्यन्न किंचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ।। १७२ ।।
भावाथ-आपको आपसे अनुभव करते हुए परम एकाग्र भाव होजाता है । तब वचन अगोचर स्वाधीन अनादि प्राप्त होता है। जैसे हवाके झोकेसे रहित दीपक कांपता नहीं है वैसे ही स्वरूपमें ठहरा हुमा योगी एकाग्र भावको नहीं छोड़ता है। तब परम एकाग्र होनेसे व अपने भीतर भापको ही देखनेसे बाहरी पदाथोके मौजूद रहते हुए भी उसे कुछ भी नहीं झलकता है। एक मात्मा ही निर्वाण स्वरूप अनुभवमें माता है ।
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