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दूसरा माग ।
लोभ ( राग ), द्वेष, व मोहको छोड़े, वह वीतरागी होकर अहंकारका त्याग करे । निर्वाणके सिवाय जो कुछ यह अपनेको मान रहा था, उस भावको त्याग करे तब यह अविद्यासे हटकर विद्याको या सच्चे ज्ञानको उत्पन्न करेगा व इसी जन्म में निर्वाणका अनुभव करता हुआ सुखी होगा, दुःखोंका अन्त करनेवाला होगा। यदि कोई निर्वाण स्वरूप आत्मा नहीं हो तो इस तरहका कथन होना ही संभव नहीं है । अभावका अनुभव नहीं होता है। यहां स्वानुभवको ही सम्यक्त कहा है। यही बात जैन सिद्धांत में कही है। विद्याका उत्पन्न होना ही आत्मीक ज्ञानका जन्म है । आगे चलकर बताया है कि तृष्णा के कारणसे चार प्रकारका आहार होता है। (१) भोजन, (२) पदार्थों का रागसे स्पर्श, (३) मनमें उनका विचार, (४) तत्सम्बन्धी विज्ञान | जब तृष्णाका निरोष होजाता है - तब ये चारों प्रकारके आहार बंद होजाते हैं । तब शुद्ध ज्ञानानंदका ही आहार रह जाता है । सम्यकदृष्टि इस बातको जानता है। - यह बात भी जैन सिद्धांत के अनुकूल है । साधन अष्टांग मार्ग है जो जैनोंके रत्नत्रय मार्गसे मिल जाता है ।
फिर बताया है कि दुःख जन्म, जरा, मरण, माघि, व्याधि तथा विषयोंकी इच्छा है जो पांच इन्द्रिय व मनद्वारा इस विषयको ग्रहण कर उनके वेदन, मदिसे पैदा होती है। इन दुःखोंका कारण काम या इन्द्रियभोगकी तृष्णा है, भावी जन्मकी तथा संपदाकी तृष्णा है। उनका निरोध तब ही होगा जब अष्टांग मार्गका सेवन करेगा । यह बात भी जैन सिद्धांतसे मिलती है । सांसारीक सर्व दुःखका
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