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दसरा भाग।
(२) वेदनाओंमें वेदनानुपश्यी ( सुख, दुःख व न दुःख सुख इन तीन चित्तकी अवस्थारूपी वेदनाओंको जैसा हो वैसा देखनेवाला । (३) चित्तमें चित्तानुपश्यी, (४) धर्मो में धर्मानुपश्यी हो, उद्योगशील अनुभव ज्ञानयुक्त, स्मृतिवान् लोकमें (संसार या शरीर) में (अमिघ्या) लोम और दौर्यभस्म (दुःख) को हटाकर विहरता है।
(१) कैसे भिक्षु कायमें कायानुपश्यी हो विहरता है। भिक्षु भाराममें वृक्षके नीचे या शून्यागारमें आसन मारकर, शरीरको 'सीधा कर, स्मृतिको सामने रखकर बैठता है । वह स्मरण रखते हुए श्वास छोड़ता है, श्वास लेता है । लम्बी या छोटी श्वास लेना सीखता है, कायके संस्कारको शांत करते हुए श्वास लेना सीखता है, कायके भीतरी और बाहरी भागको जानता है, कायकी उत्पत्तिको देखता है. कायमें नाशको देखता है । कायको कायरूप जानकर तृष्णासे अलिप्त हो विहरता है। लोक में कुछ भी (मैं मेरा करके) नहीं ग्रहण करता है। भिक्षु जाते हुए, बैठते हुए, गमन-भागमन करते हुए, सकोड़ते, कैलाते हुए, स्वाते-पीते, मलमूत्र करते हुए, खड़े होते, सोते-जागते, बोलते, चुप रहते जानकर कानेवाला होता है। वह पैरसे मस्तक तक सर्व मा उपाङ्गोंको नाना प्रकार मलोंसे पूर्ण देखता है। वह कायकी रचनाको देखता है कि यह पृथ्वी, जल, अमि, वायु. इन चार धातुओंसे बनी है । वह मुर्दा शरीरकी छिन्नभिन्न दशाको देखकर शरीरको उत्पत्ति व्यय स्वभावी जानकर कायको कायरूप जानकर विहरता है।
- (२) मिश्र वेदनाओंमें वेदनानुपश्यी हो कैसे विहरता है। मुख वेदनाभोंको अनुभव करते हुए "मुख वेदना अनुभव
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