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दूसरा भाग।
बह निर्विकल्प अनुभव गोचर मात्माका एक गुण है । वह दर्शन मोहनीयके उदयसे अनादि कालसे मिथ्या सादु रूप होरहा है।
तपथा स्वानुभूतौ वा रत्काले वा तदात्मनि । मस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापि तत् ॥४०॥
भावार्थ:-जिस मात्मामें जिस काल स्वानुभति है (आत्माका निर्वाण स्वरूप साक्षात्कार होरहा है) उस आत्मामें उस समय अवश्य ही सम्यक्त्व है । क्योंकि विना सम्यक्त के स्वानुभूति नहीं होसक्ती है।
सम्यग्दृष्टि प्रशम, संवेग, अनुकम्श, भास्तिक्य चार गुण होते हैं। इनका लक्षण पंचाध्यायीमें है
प्रशमो विषयेषूचे वक्रोधादिवेषु च । लोका संख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छथिलं मनः ॥ ४२६ ॥
भा०-पांच इन्द्रियके विषयों में और असंख्यात लोक प्रमाण क्रोधादि भावोंमें स्वभावसे ही मनकी शिथिलता होना प्रशम या शांति है।
संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः । सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥ ४३१ ॥
भा०-साधक मात्माको धर्ममें व धर्मके फल में परम उत्साह होना संवेग है। अन्यथा साधर्मियों के साथ अनुराग करना व भरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधुमें प्रेम करना भी संवेग है ।
अनुकम्पा क्रिया ज्ञेया सर्वसत्त्वेष्वनुग्रहः। मैत्रीमावोऽय माध्यस्थ नै शल्यं वैरवनात् ॥ ४४६ ॥
मापाय-सर्व प्राणियोंने उपकार बुद्धि रखना अनुकम्पा (खया) प्रगती मला सर्व माणियोम मंत्रीभाव रखना मी तु.
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